Wednesday, June 25, 2014

Suvichaar By Atul Dakshini




!"श्री गिरिराज धरण प्रभु हम तुम्हारी शरण।"!

सुशीलो मातृपुण्येन,
               पितृपुण्येन चातुरः ।
औदार्यं वंशपुण्येन,
       आत्मपुण्येन भाग्यवान ।।

         अर्थात् कोई भी संतान अपनी माता के पुण्य से सुशील होता है, पिता के पुण्य से चतुर होता है, वंश के पुण्य से उदार होता है और अपने स्वयं के पुण्य होते हैं तभी वो भाग्यवान होता है, भाग्य प्राप्ति के लिए सत्कर्म आवश्यक है ।

   भगवान को रहने के लिए जगहकी कमी थोड़े है ।
              लेकिन भक्त के मन में, हृदयमें रहने का मजा ही दूसरा है । इसलिए भगवान निर्मल मन वाले को तलासते रहते हैं ।जैसे कोई निर्मल मन मिला उसमें बस जाते हैं ।अतः भगवान को पाने के लिए हमें कुछ नहीं करना है।सिर्फ हमें अपने मन को निर्मल बना लेना है।सब छोड़कर हम अगर यह काम कर ले जाएँ तो भगवान हमें मिल जाएंगे। भगवान खुद कहते हैं- ‘निर्मल मन सो जन मोहि पावा । हमहिं कपट छलछिद्र नभावा’ ।


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